नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक आरोप लगते हैं, तो केवल इस आधार पर कि मामला सिविल कोर्ट में भी चल रहा है, FIR को रद्द नहीं किया जा सकता। यह फैसला “पुनीत बेरीवाला बनाम दिल्ली राज्य व अन्य” केस में दिया गया, जहां दिल्ली हाईकोर्ट ने संपत्ति विवाद से जुड़ी एक FIR को रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को पलटते हुए FIR को बहाल कर दिया और स्पष्ट किया कि “केवल इसलिए कि अनुबंध के उल्लंघन के लिए सिविल उपाय उपलब्ध है, इससे यह नहीं माना जा सकता कि आपराधिक कार्यवाही अनुचित है।”
क्या था मामला…
यह विवाद एक संपत्ति बिक्री के समझौते से जुड़ा था। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ FIR दर्ज करवाई थी, जिसमें गंभीर आरोप जैसे जालसाजी, धोखाधड़ी (IPC की धाराएं 467, 468, 471, 420, 120B) शामिल थे। साथ ही इस मामले में सिविल मुकदमे भी चल रहे थे। हाईकोर्ट ने इसे सिविल विवाद मानते हुए FIR रद्द कर दी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिविल और आपराधिक कार्यवाही एक साथ चल सकती हैं, और अगर FIR में लगाए गए आरोप किसी अपराध की ओर इशारा करते हैं तो उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आरटीआई एक्टिविस्ट मोहम्मद फैज़ान ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा…
“यह निर्णय उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो आपराधिक कृत्य करके भी कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर, खुद को बचाने की कोशिश करते हैं। अक्सर देखा जाता है कि प्रभावशाली लोग FIR को केवल इस आधार पर रद्द करवाने का प्रयास करते हैं कि मामला सिविल कोर्ट में चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर अपराध हुआ है, तो जांच और कार्रवाई से बचा नहीं जा सकता। यह फैसला आम जनता में न्याय के भरोसे को और मजबूत करता है।”
महत्वपूर्ण कानूनी संदर्भ
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसलों का भी हवाला दिया, जैसे:
सैयद अक्सरी हादी अली बनाम राज्य (2009)
ली कुन ही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2012)
ट्रिसन्स केमिकल्स बनाम राजेश अग्रवाल (1999)
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक व्यवस्था के लिए एक सकारात्मक संकेत है। यह स्पष्ट करता है कि केवल सिविल कार्यवाही का सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति आपराधिक आरोपों से नहीं बच सकता। यदि किसी FIR में प्रथम दृष्टया अपराध के संकेत हैं, तो जांच और मुकदमा अनिवार्य है।